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कविता

मुस्कराइये जनाब

राजेंद्र प्रसाद पांडेय


मुस्कराइये जनाब
कि आप लखनऊ में हैं

हम आपके खादिम हैं
आपको नहीं छोडेंगे
पटक कर फोड़ेंगे नहीं
संतरे की तरह
नर्मी से दाब कर निचोड़ेंगे
यह शहर की तहजीब है
वर्ना आज के जमाने में किसी से कुछ पाना
बहुत बड़ी तरकीब है

फिर भी आप अपना
मुस्कराते जाइये
मुस्कराइये जनाब
कि आप लखनऊ में हैं

हुजूर आपको बतलाते हैं
हम नवाबों की औलाद हैं
यह बात दूसरी है
कि आज हमारे हाथ में
रिक्शे के हैंडिल
फेंटे में
तीन बीरा सुरती
पेट में
सौ ग्राम चने
चेहरे पर धूल-धक्कड़
और जुआ हारे-से मन में
अनंत अवसाद हैं
सच मानिये हुजूर
पूरे शहर में
सिर्फ नवाबों की औलादें
आबाद हैं
गाँव से शहर पहुँचा
आज हमारा कुनबा
झाड़ू से बुहारने लायक
कूड़े का ढेर है
कुछ कहा नहीं जाता
वक्त-वक्त का फेर है

यह जो सामने होटल देख रहे हैं
यहाँ हमारे बागान थे
कभी इन सारी बस्तियों में
हमारे घुड़सवार, तंबू, कनात थे
कई कालोनियों में
बरसात की गोमती बहती थी
जहाँ जाड़े में अनाज की फसल
और गर्मी में
खरबूजा, तरबूज और ककड़ी
रंग-बिरंगी पोशाकों में
झूमते चारणों-सी
धरती पर
मेहनत की बादशाहत
की कहानी कहती थी

हुजूर!
कभी यह सारा शहर
सचमुच हमारा था
मगर अब...
खैर छोड़िये
आपको कुछ और घुमाते हैं
जंतर-मंतर, भूलभुलैया दिखाते हैं

हुजूर आप कौन हैं
बादशाह हैं
बेगम हैं
कि गुलाम हैं
मगर अगर बादशाह होते
तो कुछ और होते
बेगम होते तो
इतने गमगीन भी
कुछ तो रंगीन होते
जाहिर है कि गुलाम
तो आप हैं ही नहीं
फिर क्या आप तीनों के
मिलेजुले रूप हैं

आप भी खूब हैं
बोलते बिल्कुल नहीं
बस मुस्कराये जाते हैं
ठीक है जनाब
मुस्कराइये
कि आप लखनऊ में हैं

 


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